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"रूस - युक्रेन" युद्ध से पश्चिमी देशों की पोल खुल गई


अमेरिका में ‘डोनाल्ड ट्रंप’ के पुनः सत्ता में वापसी के कुछ दिनों बाद ही युक्रेन के राष्ट्रपति ‘जेलेंस्की’, ‘डोनाल्ड ट्रंप’ से मिलने अमेरिका गए.
‘डोनाल्ड ट्रंप’ और अमेरिका के उप राष्ट्रपति ‘वेंस’ से मुलाक़ात के दौरान उन्होंने सड़क उनसे छाप अंदाज में बातें की, और उस बातचीत के दौरान उन्होंने अमेरिकी उप राष्ट्रपति ‘वेंस’ पर बेवजह ऊंचा बोलने का आरोप लगा दिया; वह मात्र इसलिए कि ‘जेलेंस्की’ चाहते थे कि वे जो भी कह रहे हैं, उसे ही सही माना जाए. ‘वेंस’ पर ऊंचा बोलने का आरोप लगाते ही ‘डोनाल्ड ट्रंप’ ने ‘जेलेंस्की’ को तुरंत आड़े हाथों लिया, और उन्होंने जेलेंस्की को बहुत कुछ खरा - खरा सुना दिया.
 

‘डोनाल्ड ट्रंप’ ने ‘जेलेंस्की’ को जो कुछ भी सुनाया, वह 100 प्रतिशत व्यावहारिक सत्य था. 
‘डोनाल्ड ट्रंप’ ने यूक्रेनी राष्ट्रपति ‘जेलेंस्की’ से कहा, कि एक तो अमेरिका के पूर्व के “मूर्ख राष्ट्रपति” (जो बाईडेन) की मदद से आप हमारे हथियारों और पैसे से युद्ध लड़ रहे हो, और आज हमें आँखें भी दिखा रहे हो. 'ट्रम्प' ने बेबाक अंदाज में आगे कहा, कि तुम्हारी वजह से ‘युक्रेन’ आज बर्बाद हो रहा है, वहां के शहर नष्ट हो रहे हैं, और तुम्हें इसकी कोई परवाह नहीं है.
उन्होंने ‘जेलेंस्की’ से कहा कि जिस युद्ध की शुरुआत तुमने की है, वह मात्र दो हफ्ते में ख़त्म हो जाता. ‘ट्रंप’ के कहने का आशय साफ़ था, कि यदि मात्र ‘युक्रेन’ ही ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ से युद्ध लड़ता, तो ‘युक्रेन’ मात्र दो हफ्ते में ही परास्त हो जाता और ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ का युक्रेन पर कब्जा होता.
इतना सब कुछ सुनने के बावजूद ‘जेलेंस्की’ बेशर्मों की भांति सब कुछ सुनते भी जा रहे थे और अपनी बकवास दलीलें ‘डोनाल्ड ट्रंप’ और वेंस को देते भी जा रहे थे.
 
‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ और ‘युक्रेन’ युद्ध ने एक चीज तो बड़ी स्पष्ट की है. वह यह, कि लोकतंत्र में जनता को भ्रमित करके अथवा स्वतः अनुकूल अवसर उत्पन्न हो से अक्सर ‘जेलेंस्की’ जैसे नमूने सत्ता पर काबिज हो ही जाते हैं, जिन्हें अपने पद की गंभीरता का अंदाजा ही नहीं होता. उन्हें इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं रहता कि उनके किसी गलत अथवा मूर्खतापूर्ण फैसलों से पूरे देश की जनता की स्थिति क्या हो सकती है.
यदि ‘जेलेंस्की’ ज़रा भी समझदार और संवेदनशील नेता होते, तो वे अपने देश को, ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले शक्तिशाली देश ‘रूस’ के साथ युद्ध में नहीं ढकेलते.
कई बार युद्ध मजबूरी बन जाता है और आवश्यक हो जाता है; परन्तु तब, जब इस प्रकार की परिस्थितियां न बन जाए, कि युद्ध अपरिहार्य लगने लगे. 
परन्तु ‘जेलेंस्की’ ने ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के साथ युद्ध में जाने का फैसला मात्र दूसरों के उकसाने पर किया, और ‘जेलेंस्की’ आज भी उन्हीं के इशारों पर चलते हुए ‘युक्रेन’ को युद्ध का मैदान बनाये हुए हैं, जिसमें नुकसान युक्रेन का ही हो रहा है. 
अमेरिकी चुनावों के दौरान अथवा शायद उसके बाद, अमेरिका के राष्ट्रपति ‘डोनाल्ड ट्रंप’ और ‘एलन मस्क’ ने ‘युक्रेन’ के राष्ट्रपति ‘जेलेंस्की’ को, ‘रूस’ से बेवजह युद्ध को लेकर उन्हें ‘कॉमेडियन’ कह कर उनका मजाक भी बनाया था. उनका यह कटाक्ष उचित भी था, क्योंकि ‘जेलेंस्की’, युद्ध को मजाक की तरह ही ले रहे थे और आज भी वे इसे शायद मजाक ही मान रहे हैं. यदि वे ज़रा भी गंभीर राजनेता और अपनी जनता के प्रति संवेदनशील होते, तो वे ‘नाटो’ में शामिल होने की हठ को त्यागकर युद्ध में जाने से बच सकते थे और ‘युक्रेन’ को तबाही से बचा सकते थे.
‘रूस’ से अधिकतर पश्चिमी देश सदियों से नफरत करते आ रहे हैं, और वे उसे नुकसान पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. यही कारण है कि पश्चिमी देशों के नेता, हमेशा से ही ‘रूस’ के विरुद्ध कुछ न कुछ काम करते ही रहते हैं.
इस बार उन्हें ‘जेलेंस्की’ जैसा नमूना मिल गया, जिसके कंधे पर बन्दूक रखकर, पश्चिमी देशों ने नेता, ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के विरुद्ध अपना अभियान चला रहे हैं. एक ओर वे अपने देशों को तो सुरक्षित किए हुए हैं, पंरतु ‘युक्रेन’ को उन्होंने तबाह होने के लिए आगे कर दिया है; और यह बात ‘जेलेंस्की’ नाम का नमूना राष्ट्रपति समझने को तैयार नहीं है.    
 यदि ‘नाटो के देश’, ‘युक्रेन’ को अपनी सदस्यता देने को बरगला रहे थे, तो उन्हें चाहिए था कि युद्ध शुरू होते ही, अथवा युद्ध की आशंका मात्र से ही, वे खुलकर ‘युक्रेन’ को ‘नाटो’ में शामिल कर लेते, और ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ से सब मिलकर युद्ध करते.
लेकिन ‘नाटो’ देशों के नेता बड़ी होशियारी से एक देश के "बेवकूफ राष्ट्रपति" को आगे करके ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के विरुद्ध अभियान छेड़ दिए. यदि इस युद्ध में ‘रूस’ का नुकसान होता है, तो पश्चिम के नेताओं को तसल्ली मिलेगी और वे इसे अपनी सफलता मानेंगे. और यदि उन्हें अपने ‘रूस’ विरोधी अभियान में सफलता नहीं मिलती, तो उनका जाना ही क्या है? जो भी बर्बादी होनी है उसके लिए ‘युक्रेन’ तो है ही.
इस युद्ध ने यह साबित कर दिया है कि ‘व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व में ‘रूस’ बड़ा शक्तिशाली और मजबूत देश है. आज लगभग सभी पश्चिमी देश मिलकर भी ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ का कुछ ख़ास बिगाड़ नहीं पा रहे हैं.
‘व्लादिमीर पुतिन’ युद्ध नीति का सम्मान करते हुए युद्ध करते हैं, और अपने देश की तरक्की और खुशहाली में इजाफा करते हुए आगे बढ़ने वाले नेता है.
उन्होंने इस “चमन चिंटू” – ‘जेलेंस्की’ के साथ युद्ध में कभी अपना “आपा नहीं खोया”. अमेरिका ने तो “पर्ल हार्बर” पर अटैक के बाद अपनी असलियत दिखा दी थी. उसने जापान के दो शहरों पर परमाणु बन गिरा दिए थे जिसमें लाखों निर्दोष नागरिकों की मृत्यु हो गई थी. 
परन्तु आज अधिकांश पश्चिमी देशों के साथ ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाला ‘रूस’ अकेले ही अपना युद्ध लड रहा है, वह भी युद्ध की नीतियों का उलंघन किये बगैर.
‘पुतिन’ के लिए यह बड़ा कठिन दौर है, कि एक ओर वे अकेले युद्ध कर रहे हैं और दूसरी ओर अन्याय के सहारे आगे बढ़ने वाले कुटिल नेताओं और उनके देशों की जमात है. यह वैसे ही है जैसे महाभारत के युद्ध में कुटिल, अभिमानी और अन्याय के रास्ते पर चलने वाले कौरवों के पास बड़ी सेना थी, वहीं पांडवों के पास मात्र चुनिन्दा योद्धा ही थे.
इस कठिन दौर में यदि राष्ट्रपति ‘पुतिन’ चाहते, तो उनके पास इस बात के पर्याप्त आधार थे और आज भी हैं, कि वे छोटे परमाणु हथियारों अथवा अत्यंत घातक “गैर – परमाणु हथियारों” का उपयोग करके इस युद्ध को मात्र दो से तीन महीने में ख़त्म करके पूरे ‘युक्रेन’ को श्मशान बना देते; जैसा कि ‘इजराइल’ ने ‘गाजा’ को बनाया हुआ है. परन्तु राष्ट्रपति ‘पुतिन’ ने ‘मानवता’, ‘धैर्य’ और ‘युद्ध नीति’ की एक ऐसी मिसाल पेश की है, जो इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखे जाने योग्य है.
इस युद्ध ने पश्चिमी देशों के नेताओं की कुटिलता, स्वार्थी नियत, अपने आगे किसी अन्य को आगे न बढ़ने देने की चाल और उनके दिखावे वाली शक्ति की भी पोल खोल कर रख दी है.
आज पूरा विश्व जानता है कि रूसी राष्ट्रपति ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ से ‘युक्रेन’ अकेला ही युद्ध नहीं कर रहा है, ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ का युद्ध लगभग पूरे पश्चिमी देशों से है. परन्तु पश्चिम के वे सभी देश अपनी पूरी ताकत लगाकर भी रूसी राष्ट्रपति ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ का कोई बड़ा नुकसान नहीं कर पा रहे हैं. इतने लम्बे युद्ध में यदि वे रूस को बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पा रहे हैं, तो यह अपने आप में ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि पश्चिमी देशों की ताकत, रूसी राष्ट्रपति ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के सामने कैसी है ? 
‘युक्रेन’ का साथ देने वाले पश्चिमी देशों के नेता इतने निर्लज्ज हैं, कि वे एक ओर तो राष्ट्रपति ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ से युद्ध कर रहे हैं, लेकिन उसी ‘रूस’ से वे कच्चा तेल और उर्वरकों इत्यादि की बड़ी मात्रा में खरीद भी कर रहे हैं. यदि उनमें ज़रा भी शर्म लिहाज होती, तो वे ‘रूस’ से इन चीजों का आयात नहीं करते. लेकिन ‘बेशर्म तो बेशर्म’; उनमें लज्जा शर्म का तो कोई अंश होता नहीं है, इसलिए ऐसे कार्यों को करने में उन्हें कोई गलत बात नजर नहीं आती है.
‘व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ और ‘जेलेंस्की’ के नेतृत्व वाले ‘युक्रेन’ युद्ध में ‘डोनाल्ड ट्रंप’ की भूमिका अभी तक तो काफी हद तक ठीक ही रही है. वे ‘युक्रेन’ की शायद उतनी मदद नहीं कर रहे हैं जितनी ‘जेलेंस्की’ की अपेक्षा है.
‘डोनाल्ड ट्रंप’ एक ऐसे जिम्मेदार नेता मालूम होते हैं, जिन्हें अपने देश की परवाह पहले है. वे ‘राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ और ‘युक्रेन’, दोनों को युद्धरत नहीं देखना चाहते हैं. और इस युद्ध को समाप्त करने के लिए उन्होंने काफी गंभीर प्रयास भी किए हैं. परन्तु पश्चिम के कई कुटिल नेता उनके इन प्रयासों पर पानी फेर देते हैं.
यदि ‘डोनाल्ड ट्रंप’ शुद्ध रूप से राजनेता ही होते, तो हो सकता है की वे भी “जो बाईडेन” की भांति ही कार्य कर रहे होते. चूंकि वे एक सफल व्यवसायी हैं, इसलिए वे पर्याप्त व्यावहारिक समझ रखते हैं; और एक अच्छे नेता के तौर पर वे अपने देश के नागरिक हितों के प्रति संवेदनशील भी हैं.
चूंकि वे व्यावहारिक दृष्टिकोण के व्यक्ति हैं और स्पष्टवादी भी हैं, यही कारण है कि उन्होंने खुले आम ‘युक्रेन’ के राष्ट्रपति को खूब जमकर खरा – खरा सुना भी दिया था.
युद्ध जीतने के लिए मात्र हथियारों की संख्या और पाशविक बल ही नहीं चाहिए होता है; यदि युद्ध किसी ऐसे व्यक्ति से है जो सच्चाई, इमानदारी और आध्यात्मिक बल के साथ खड़ा है, तो वहां पर विरोधी के हथियारों की संख्या और उसके पाशविक बल स्वतः ही कमजोर पड़ जाते हैं.  
आज लगभग पूरा पश्चिमी जगत ‘व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के विरुद्ध युद्ध कर रहा है, परन्तु राष्ट्रपति ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाला ‘रूस’ अकेले ही उनका सामना बड़ी सफलतापूर्वक कर रहा है. पुतिन अकेले होते हुए भी आज सबसे बलवान और विजई हैं, तो मात्र इसलिए, क्योंकि उनके पास सैन्य ताकत एवं सक्षम हथियारों के साथ “नेक नियत” और "आध्यात्मिक बल की ऊर्जा" भी है.
आज जो भी पश्चिम के नेता ‘व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के विरुद्ध ‘युक्रेन’ को एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, उनकी असलियत यही है, कि वे इतने कुटिल हैं, कि वे एक बेवकूफ के कंधे पर बन्दूक रखकर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास कर रहे हैं. उनकी इस कुटिल चाल में ‘युक्रेन’ की निर्दोष जनता तबाह हो रही है. 
युक्रेन की बड़ी आबादी युद्ध के शुरुआती दौर में ही अपने देश को छोड़कर दूसरे देशों में शरणार्थियों की भांति रहने को मजबूर है, और ‘युक्रेन’ से उसके नागरिकों का पलायन आज भी जारी है. ‘युक्रेन’ के आम लोगों के नुकसान का पाप ‘युक्रेन’ के मूर्ख राष्ट्रपति से अधिक पश्चिमी देशों के उन कुटिल नेताओं पर अवश्य जाएगा, जो ‘जेलेंस्की’ को ‘व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के विरुद्ध अपना मोहरा बनाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं.
आज राष्ट्रपति ‘पुतिन’ के नेतृत्व वाला ‘रूस’, अपने युद्ध कौशल से यह स्थापित कर चुका है, कि अधिकांश पश्चिमी देश एक होकर भी उसका कुछ ख़ास नहीं बिगाड़ पा रहे हैं; और रूस परम शक्तिशाली है.
वहीँ ‘युक्रेन’ का “जोकर राष्ट्रपति” और उसका समर्थन व सहयोग करने वाले पश्चिमी देशों के नेता कुटिल, बेईमान और कमजोर नजर आ रहे हैं. ‘व्लादिमीर पुतिन’ के नेतृत्व वाले ‘रूस’ के आगे इन पश्चिमी देशों की शक्तियां तिनके की भांति प्रतीत हो रही हैं; क्योंकि वे धन, बल, तकनीकी और हथियारों के अपने सारे घोड़े खोलने के बाजवूद भी ‘पुतिन’ और उनके देश ‘रूस’ का कोई बड़ा नुकसान नहीं कर पा रहे हैं.


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  1. Thanks for sharing the insightful facts...

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